दास्तां मैं सोच में डूबी थी वो मुझमे तैर गया, वो करीब रहा मेरे बस, फिर भी गैर रहा। बेहाल रही कब तक तुम मेरे हाल पे झेपो ना, मेरा वक्त खराब था मिरा मीत नहीं था बुरा। मैं उस पार खड़ी रही वो इस पार रहा खड़ा, दोष किनारों का नहीं बस, लहरों का बहाव तेज था। इक पल की बात नहीं सारे जीवन कि है दासतां, तुम मिले और रह गए मुझमे ढूँढने को तुम्हें, मैं क्यों जाऊँ यहाँ-वहाँ।