छुप-छुप के मोहब्बत निभाती रही हूँ मैं कि जिस रोज वो नही सोया खुद को जगाती रही हूँ मैं। अक्सर रूठ जाता है मेरी इस बात से वो उसके जर्रे-जर्रे में अपनी धूल उडाती रही हूँ मैं। कातिल है, प्यारा है, हसीन है, दिलकश है कि हर शाम उसकी नजर उतारती रही हूँ मैं। कहीं मैला न हो जाए बस इसी डर से उसे कितने दिनों दूर से ही निहारती रही हूँ मैं। छू तो लूँ कहीं हवा न हो जाए इसी डर से उसे हकीकत बताती रही हूँ मैं। चल कुछ दूर, साथ चल मेरे कि कभी थक कर कुछ देर साथ बैठ जाओगे इसी नियत से थकाती रही तुम्हें। बहुत भोले हो अब तक नही समझे ये मोहब्बत है तुम्हें कितने दफे तो जताती रही हूँ मैं।