कालचक्र
मत कर सवाल इतने कि जवाब दे न सकूंँ, थककर बैठूँ ऐसे की और ख्वाब ले न सकूँ। मोहलत मिले कुछ तो हरारत जाग जाती है, सफर लंबा बचा है सोचकर आरामीयत भाग जाती है। "दुनिया", तेरी बातों में मन लग तो जाता है, पर मुझे "जिंदगी", तेरी भाग-दौड़ का डर सताता है। आज ही बागीचे में एक नई कोपल दिखी है, शाम बीते लम्हा न हुआ फिर बादल गडगडाता है। एक मुद्दत के बाद परिंदे ने फिर अशियां बुना है, हवा फिर रुख बदलने को बेसबर है, मैने सुना है। फटा बादल तो, गजब ढाँ गया है, कभी जो शान से खडे़ थे...माटी में मिला गया है। थका बैठा है, आसमान ताकता है, "बेबस" कुछ दम भरता है, फिर भागता है। कई छेद है उसमे, कहीं चिथड़े जडे़ हुए, वो पल्ला जो मेरी माँ का सिर ढाँकता है। मत कर सवाल इतने कि जवाब दे न सकूँ, थककर बैठूँ ऐसे फिर ख्वाब ले न सकूँ। आज़माता है, डराता है, तो थपथपाता है कभी, वक्त का पलना है... गिराता है, तो झूलाता है कभी। गिरती है गाज तो हम पर ही गिरे क्यों, मिलता है जो घर वो मेरा ही मिले क्यों। मैं जो कह दूँ तो शिकायत लगती है, आहट है, जो आगाज-ऐ-बगावत लगती है। खामोश फितरत नहीं त