शोर होना चाहिए!

जल गया दीपक अपनी ही आग से,
क्या ढूँढते हो अब बची इस राख में।

विश्व ने माना लोहा जिसका,
वो तिरंगा झुका जा रहा अपनी ही आँख में।

जीत जाते गर जंग बाहरी होती,
हम हारे अपनी आस्तीन के सांप से।

लहू का हर कतरा बहा वे रुख़सत हुए,
कैसे न बहता कतरा हर आंख से।

जवान थे, महान थे, साहसी बलवान थे,
कोई पत्ता नही जो टूट कर गिर गया साख से।

छिन्न-भिन्न पार्थिव शरीर, हर टुकड़ा जोड़कर,
कैसे समेटा होगा एक मां ने अपना हिस्सा अपने हाथ से।

हद पार कर गए वो, अब तो शोर होना चाहिए,
अब जीएंगे तो अन्याय और अधर्म को मार के....

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