जीवन, शिक्षक और मोक्ष!
विद्या सारी जिंदगी एक सच्चे मित्र की तरह हमारे साथ रहती है, गलत और सही, अच्छा और बुरा इनके अंतर को समझने में शिक्षक बनती है।
शिक्षक से आज के ब्लॉग का विषय याद आया। हमारे समाज में बहुत पहले से शिक्षक का स्थान सर्वोच्च माना जाता है। पर मैं आज इससे विपरीत बात कहने आई हूँ।आप पढ़े और बताए आपका नजरिया क्या है।
आदिकाल में जब गुरू को ईश्वर से उच्च स्थान दिया गया था तब असल में वो स्थान गुरूओं ने कड़ी तपस्या और त्याग के बाद कमाया था। गृहस्थ जीवन त्याग कर जीवन का एक बड़ा हिस्सा एकांत में एकमात्र ईश्वर पर ध्यान लगा कर कड़ी मेहनत से कमाया गया स्थान है वो।
क्या आपने कभी सुना है इतिहास में महान गुरू व्यसनकारी थे, नही सुना होगा। पर देवताओं में यह बात आम है। अपनी इच्छाशक्ति को काबू कर, माया से जीता हुआ इंसान जो कितने ही बार देवताओं को भी सत्मार्ग दिखाते हैं, वाकई में वो "गुरू" नाम के दर्जे के हकदार हैं।
अब आते है आज की समस्या पर। हम आज की पीढ़ी के लिए न जाने कितने ही शिकायत करते हैं, तंज लगाते हैं, और कभी-कभी हद हो जाने पर दुःख भी जताते हैं। समस्या के बारे में सोचकर चिंतित रहते हैं, भविष्य की आहट कभी-कभी भूत की गलतियों का परिणाम लेकर आती हैं। जो सच में कई बार बड़ी ही भयावह होती हैं।
समस्या से ज्यादा वक्त हमें समाधान पर लगाना चाहिए और विचार करना चाहिए कि हम गलत कहाँ हुए। मेरे विचार से समस्या और समाधान में ज्यादा अंतर नहीं होता, क्योंकि दोनों का जन्म एक ही जगह होता है।
कैसे?
"प्रारम्भ में या प्रक्रिया में हुई गलती ही परिणाम में गडबड कर देती है।"
पहले के समय में बच्चों को बचपन का भरपूर्ण मजा लेने दिया जाता था, उस समय मन बहलाने के लिए उन्हें खिलौने, टी.वी.और मोबाइल की जरुरत नही पड़ती थी। क्योंकि तब परिवार में केवल 3 या 4 सदस्य नही बल्कि तीन पीढियां एक छत के नीचे रहा करती थी।
सभी के पास ढेरों यादें, किस्से, कहानी और उनके अपने तजूरबे हुआ करते थे, खुली छतें व बड़े मैदान हुआ करते थे। बचपन में ही 3 पीढ़ीयों का ज्ञान व तजूरबा उनके साथ होता था। आज 3 लोगों का परिवार जिनमे 2 व्यक्ति की अपनी व्यस्तताऐं होती हैं। बच्चा अकेला टेलिविज़न या मोबाइल का आदी तो होगा ही। जिनमे वो आस्था या संस्कार चैनल नही देखते हैं।
बचपन के बाद विद्यार्थी जीवन जो बहुत नाजूक उम्र में ही शुरू हो जाता है। जहाँ उन्हें वो ज्ञान दिया जाता है, जो उनके मन की कल्पनाओं और जिज्ञासा को मार देते हैं। जी हाँ ! हमें आज शिक्षा के तौर पर भौतिकवादी(materialistic) बनाया जाता है। जो इस जाल से बचने या भागने की कोशिश करता है उसके लिए हमारे समाज ने कई उपमाऐं दे रखी है जिनमे "समझदार" शामिल नहीं है।
जब खुद को एक साँचे मे ढालने का वक्त आता है तो पता चलता है हमें तो पता ही नहीं है हमारे लिए सही सांचा कौन सा है। किशोरावस्था का समय आत्म संयम व अपनी इंद्रियों को काबू में रखने का होता है और आज हम इसी पडाव पर आकर डगमगाते है। इसका बड़ा कारण आज का रसन-सहन तो है ही पर इसके साथ शिक्षक भी हैं।
सबसे पहले मैं उन शिक्षकों से माफी मांगूगी जो इस श्रेणी में शामिल नहीं है।
उस समय गुरू बनना बड़ा कठिन होता था जब हम गुरू को ब्रह्मा मानते थे। पर आज शिक्षक बनना कोई कठिन काम नहीं है खासकर निजी स्कूल में। जिनके पास कोई काम नहीं है वो एक साक्षात्कार देकर नंबरों की दौड़ में आगे आकर शिक्षक बन जाते हैं।
जिनका अपना कोई व्यक्तित्व नही वो आने वाली पीढ़ी को अनुशासन व नैतिकता का पाठ कैसे पढ़ा सकते हैं। आज शिक्षक स्वयं ही कई व्यसनों से घिरा है वो सुद्ध जीवन का ज्ञान कैसे देगा। और यदि शिक्षक ये पाठ पढ़ा भी दे तो क्या इसका कोई प्रभाव है?
कक्षा में बैठे शिक्षक यदि गुटका खाकर थूकते हैं तो उसी मुँह से निकले शब्दों का मोल क्या होगा। आज गुरू और शिष्य का रिश्ता केवल शिक्षक और छात्र का रह गया है। आज छात्र, शिक्षक की बराबरी पर बैठते हैं। गले में हाथ डाल कर बातें करने से भी कोई परहेज नहीं।
आज शिक्षक, छात्र को सजा नहीं दे सकते, परिजन नंबर कम आने पर शिक्षक को दोष देते हैं। आज हममे शिक्षक की छडी का डर नही रहा है, आज हममे ये डर नही है कि शिक्षक शिकायत लेकर शाम को घर ना आ जाए।
डाक्टर बनने के लिए कई सालों की पढ़ाई फिर जानकार के अंदर सालों का प्रशिक्षण, उसके बाद एक अच्छा चिकित्सक बनता है। यही दूसरे विभागों के साथ भी होता है। यदि शस्त्र की शिक्षा दिए बिना ही सिपाही को युद्ध के मैदान में खड़ा कर दो तो वो शशस्त्र होकर भी किसी काम नही आ पाएगा।
ठीक वैसे ही बिना प्रशिक्षण, सही तकनीक के यदि कोई शिक्षक बन भी जाए और वो कितना ही ज्ञानवान क्यों न हो गडबड तो होनी ही है। जो अपनी बात को सही लहजे में कुछ ऐसे पेश करें की बात का अर्थ भी न बदले और सहजता से समक्ष में भी आ जाए, वही शिक्षक होता है।
इसी के साथ नैतिकता पर ध्यान देना भी जरूरी है। जो आपका मार्ग प्रदर्शन कर रहे है अगर वो खुद ही राह भटके हो तो वो सही मार्गदर्शक कैसे होंगें?
सच है ! समय बदल गया है, जिसके साथ इंसान व इंसानी रहन-सहन भी बदला है। पर बदलाव के दुष्परिणाम भी हम झेल रहे हैं। कुछ चीजें यथा स्वरूप ही सर्वश्रेष्ठ होती है। क्योंकि बुनियाद चाहे किसी भी धातू से बनाए, महत्व मजबूती का होता है।
आज हम अपनी नींव को कमजोर करके उसे इमारत का भार संभालने का दायित्व दे देते हैं। तो इमारत का ढलना तो तय ही है। जीवन के जिस पडाव में जीवनभर में आने वाली समस्या के लिए तैयार किया जाता है, आज उसी उम्र में नई पीढ़ी जीवन नष्ट करने वाले कामों में लग जाती है। और फिर बाद में इसका जिम्मेदार दूसरों को टहराते हैं।
थोड़ी-थोडी भागीदारी सभी की है, पर अंत में कीमत किसी एक के हिस्से आती है और पूरा समाज इसका मोल चुकाता है। शिक्षक जीवन और मृत्यु के बीच के अंतर को कैसे पार करना है यह सिखाता है। इसलिए जरूरी है कि वो इसके लिए पूरी तरह तैयार किए जाए। शिक्षक के रूप में नियुक्त किये गये सभी को एक प्रक्रिया के द्वारा तैयार करके चुनकर नियुक्त किया जाए। ख़ासकर निजी स्कूलों में।
हमें शिक्षा प्रणाली में भी सुधार की आवश्यकता है। व्यक्ति जन्म के साथ बहुत से गुण साथ लेकर पैदा होता है। पर वो गुण का बीज अंकुरण की प्रक्रिया में ही कहीं दबा रह जाता है। क्यों ?
भौतिकवाद ! हमें केवल वो सिखाया जाता है जो जीवन का एक मात्र चरण है। बाकी हिस्से खाली छोड़ दिये जाते हैं और हम एक ही चरण में सारा जीवन व्यर्थ कर देते हैं। मन की शांति, ध्यान की शक्ति, शास्त्रों का ज्ञान, इंद्रियों का कार्य और भी न जाने ऐसी कितनी ही बातें जो हमें जाननी चाहिए पर हमे कोई नहीं बताता।
ये सभी ज्ञान व्यर्थ नहीं है, ये ज्ञान जीवन में आने वाली परीक्षाओं के लिए तैयार करती है। समस्या में विचलित न हो कर शांत रहने व समाधान पर ध्यान केन्द्रित करने की शिक्षा देती है और फिर शास्त्रों में तो पूरे जीवन का सार होता है। बिना हल जूताई नही होती, बिना पुल जीवन और मृत्यु के बीच की खाई कैसे पार होगी ?
बस इतना ही कहना है आज। आपका क्या विचार है ?
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